
ख़ाली कर गया मुझको, वो अपनों का धोखा
किताब ए ज़ीस्त से मिला वो औहाम का तोहफा
ना कोई गमगुसार न ही कोई फरिश्ता रहा,
तोहमत में अपनों की, अदु ज़माना रहा
हमारे होने न होने से कोई फ़र्क ना रहा,
काफ़िलो में भी तमकनत का, पैसा ही बहाना रहा
ख़ुशियों में आशोब, फ़िक्र का अब बहाना रहा
कैसे हो भरोसा जब दोबारा लौट आना हुआ
बनकर नासेह हमारे, नाटक शाद का करते हैं,
समझ नही आता ये रिश्तें पैसों पर क्यूँ पलते हैं?
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