
कविता शीर्षक: कान्हा की निंदिया
कान्हा करे अठखेलियाँ,
यशोदा माँ होती है तंग।
पास बुलाती, डांट लगाती,
कान्हा को दुलारती पुचकारती।
कान्हा को फिर पास सुलाती।।
माँ यशोदा के आँचल में छुपकर,
कान्हा सोते माँ के संग।
माँ सोने का बहाना बनाती,
आँख मिचौती माँ भी कान्हा संग।
कान्हा को फिर लोरी सुनाती।।
यशोदा माँ का कोमल स्पर्श,
शिशु का पुलकित
रोम रोम हो जाता।
माँ शिशु का आनंद अप्रतिम,
बेपरवाह, बेफिक्र निहाल।
माँ की बाँह बनी है ढाल।।
बेसुध, निश्छल, निश्चिंत हो जाते कान्हा,
सो जाते माँ के समीप ही कान्हा ।
कान्हा को सुलाती माँ खुद सो जाती,
माँ और शिशु की छवि अति सुंदर।
कैसे बखान करें कोई।।
माँ और शिशु का स्नेह, अनुराग,
अनूठा बंधन ,स्नेह अपार।
दिल से दिल के जुड़े हैं तार,
निहारुं यशोदा का रूप सौंदर्य।
या निहारुं कान्हा की छवि।।
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कान्हा की निंदिया Image by Mahendra Mahendars from Pixabay