
नारी क्यों हो अस्तित्व की तलाश में?
किससे उम्मीद, किससे दरकार, अपनी पहचान की?
तुम हो जगत जननी, देवी स्वरूपिणी ,
जो हनन बीते समय का ,
ना हो अब स्मृति में तेरी।
कर्तव्य परायणी, करुण हृदयी, निर्मल सद्भाव से,
अपना अलौकिक, आंतरिक सौंदर्य बढ़ाती ,
विषम परिस्थितियों में स्वयं को ढाल कर।
चांद तक जा पहुंची जो तू,
पीछे मुड़ कर देखना तेरी फितरत में नहीं।
करती
सृष्टि बीज गर्भ में रोपती,
करती पोषण ,सिंचित करती,
अब सोचे इक पल
वो कपटी!
जिन्हें तेरा कुछ मान नहीं।
सोच! गर ना होता वजूद तेरा,
क्या होती उत्पत्ति सृष्टि की!
वंश बीज का सिंचन, रोपण, पोषण भी करती,
तु खुद को पहचान ले,
अपना अस्तित्व को
जान ले।
नर,नारी रथ के दो पहिये।
तूअपनी पहचान है।
अपने अस्तित्व का
ज्ञान दे।
जो अधिकार दफन हो गये,
अवसर है तू मांग ले।
ना कर अस्तित्व की तलाश,
अपने अस्तित्व को आयाम दे।
अस्तित्व को पहचान दे ।