विडंबना

Photo by Evie S. on Unsplash

अक्सर डूबती है
मझधार में कश्तियाँ
हमने तो किनारों पर
डूबते देखा है।

आँधियों में भी
टिमटिमाते हैं कुछ दिये
कुछ को हवा के हल्के
झोंके से बुझते देखा है।

खंजरों के घाव तो
भर जाते हैं
शब्दों के नश्तरों को
चुभते देखा है।

गैरों से धोखा खाते,
अपनों को भी किनारा
करते देखा है।

जिनसे थी उजालों
की आशा उन्हें अंधेरों में
खोते देखा है।

हर पल जो महफिलों में
दिखते हैं खुश
उन्हें रात के अंधेरों में
रोते देखा है।

खिजा तो पतझड़ में
आती है
हमने तो सावन में
खिजा को देखा है।

ऐ जिन्दगी
तेरे खेल हैं निराले
जिसे चाह है जीने की
उसे तिल-तिल कर मरते
देखा है।

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About जागृति डोंगरे 11 Articles
मैं जागृति श्यामविलास डोंगरे मंडलेश्वर से . पिता --- महादेव प्रसाद चतुर्वेदी माध्या (साहित्यकार) हिन्दी, अंग्रेजी, निमाड़ी मंडलेश्वर शिक्षा --- M. A. हिन्दी साहित्य मैं स्कूल समय से कविताएं लिखती रही हूं , काफी लम्बे समय से लेखन कार्य छूट गया था, अब पुनः शुरू कर दिया । इसके अलावा अच्छी,अच्छी किताबें पढ़ना , कुकिंग का भी शौक है। रंगोली बनाना अच्छा लगता है। कढ़ाई , बुनाई भी बहुत की,अब नहीं करती।
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