
अक्सर डूबती है
मझधार में कश्तियाँ
हमने तो किनारों पर
डूबते देखा है।
आँधियों में भी
टिमटिमाते हैं कुछ दिये
कुछ को हवा के हल्के
झोंके से बुझते देखा है।
खंजरों के घाव तो
भर जाते हैं
शब्दों के नश्तरों को
चुभते देखा है।
गैरों से धोखा खाते,
अपनों को भी किनारा
करते देखा है।
जिनसे थी उजालों
की आशा उन्हें अंधेरों में
खोते देखा है।
हर पल जो महफिलों में
दिखते हैं खुश
उन्हें रात के अंधेरों में
रोते देखा है।
खिजा तो पतझड़ में
आती है
हमने तो सावन में
खिजा को देखा है।
ऐ जिन्दगी
तेरे खेल हैं निराले
जिसे चाह है जीने की
उसे तिल-तिल कर मरते
देखा है।