ग़ज़ल – रेत फिसल रही है

ग़ज़ल - रेत फिसल रही

शीर्षक: ग़ज़ल – रेत फिसल रही है

रेत फिसल रही हाथों से
थाम ले तू, मीठी बातों से।

अपने घर पराए हो गए
सुनकर पराई, बातों से।

खिलकर खुशियाँ मुरझाई
तपते दिन औ गर्म रातों से।

आई सुबह ऐसी, जीवन में
थी भयानक, जो रातों से।

सहमें-सहमें से सब चेहरे
मेल मिलाप की बातों से।

अपना राग अलाप रहे हैं
जाने किन किन बातों से।

जल गए जलाशय शीतांशु
जेठ सूरज की मुलाकातों से।

Image by Erik Smit from Pixabay

और कवितायेँ पढें : शब्दबोध काव्यांजलि

शेयर करें
About विजय जोशी 'शीतांशु' 1 Article
शिक्षा:- एम.ए. हिन्दी साहित्य, एम.ए. अंग्रेजी साहित्य विधा:- लघुकथा लेखन प्रकाशित संग्रह:- १. आशा के दीप (प्रथम लघुकथा संग्रह) २०१५ २. ठहराव में सुख कहाँ (द्वितीय लघुकथा संग्रह) २०१८ साँझा संकलन- १. सीप में समुद्र (लघुकथा संकलन २०१८ ) २. खंड खंड जिंदगी( लघुकथा संकलन २०१८) दिल्ली , ३. निमाड़ी संकल्प (निमाड़ी कविता) जेएमडी दिल्ली द्वारा श्रेष्ठ काव्य संगम, मासिक/साप्ताहिक पत्रिका- वीणा, मध्यभारत साहित्य समिति इंदौर की मासिक पत्रिका, सत्य की मशाल , नार्मदीय जगत, विप्र जगत, नार्मदीय लोक, विवेकवाणी, लघुकथा कलश, पटियाला पंजाब, समाचार पत्र- नईदुनिया में नायिका, अधबीच, व्हाइस ऑफ इंदौर, दैनिक भास्कर मधुरिमा , आदि विशेषांकों में निरन्तर प्रकशित। संपादन- "समय की दस्तक" साझा लघुकथा का सह संपादक कार्य संप्रति:- अध्यापक सामाजिक सरोकार- सचिव मध्य प्रदेश लेखक संघ , भोपाल पूर्व संचालक अनिलोप महेश्वर, खरगोन
0 0 votes
लेख की रेटिंग
Subscribe
Notify of
guest

0 टिप्पणियां
Inline Feedbacks
View all comments