
संस्कृति की संवाहक बन रहती मैं हिन्दी हूँ,
भारत माँ के ललाट में शोभित बिंदी हूँ।
हर भाषा मुझसे शोभित है,
पर मेरा मन क्यों आहत है।
मेरी महिमा दुनिया ने भी मानी,
पर मेरे घर में मैं कैसे अनजानी।
भाषाओं की जननी संस्कृत की मैं दुहिता,
कब तक सहन कर पाएगी ये लघुता।
उर्दू, फारसी और हर भाषा की त्रिवेणी को मैंने अपनाया,
फिर मेरे प्रति क्यों गैरों का भाव जगाया।
हर भावों की सरगम को मैंने छेडा है,
क्यों अंग्रेजी की गलियों के कारण मुझको छोडा है।
कचेहरी, संसद से जनमानस तक तो ले आए,
फिर क्यों संकट के बादल मुझमें मडराए।
तुलसी, सूर, भारतेन्दु, दिनकर व्दारा मैं पूजित,
क्यों मैं अपनों के बीच हो रही आज उपेक्षित
मैंने उगते सूरज की मानिंद ज्ञान चहुँ ओर बिखेरा है,
न जाने फिर क्यों मेरे किस्मत में फैला एक अंधेरा है।
मुझमें अवध, बनारस की है भाव भंगिमा,
क्यों गैरों(अंग्रेजी) की चाहत में भंग हो रही मेरी गरिमा
मेरा हर एक शब्द मणियों की माला है,
पर उसको क्यों खंडित कर डाला है।
सम्पर्क भाषा बन मैंने लोगो को जोडा है,
फिर क्यों निज लाभ हेतु मुझको हर पल मोडा है।
राष्ट्रभाषा बन भारत का परचम हरदम फहराया है,
फिर क्यों हर क्षण लघुता का बोध मुझे कराया है।
मेरा बस यही निवेदन है मत मुझको बिलगाव,
निज विकास के कारण सही कर लो मुझसे संधि
Image by Harish Sharma from Pixabay
और कविताएँ पढ़ें : हिंदी कविता
बहुत ही अच्छी हिंदी की व्याख्या
Bahut hi sundar