
मुक्ति नही चाहती औरत
ना ही आज़ादी चाहती है अपने बन्धनों से।
बंधी रहना चाहती है वह अपने कर्त्तव्यपथ से..
ममता की डोर से बंधना ही उसकी मुक्ति है।
उम्मीदें उसकी टूट भी जाये तो क्या
वह खुद को टूटने नही देती।
नई उमंग से बनाकर नया मानचित्र…
भर कर नए रंग और अधिक मजबूती से खड़ी हो ,
बांधती है अपने खुले केशों को और
स्वयं जुड़ जाती अतीत की *स्मृतियों से
धीरे-धीरे कर जीवन यात्रा पूर्ण
निकल पड़ती है ,अनमने मन से अपने अंतिम
परिभ्रमण पर नए अध्याय का आरंभ करने पुनः
मुक्त होकर भी वह लिपटी रह जाती होगी अपनी बगिया की किसी शाख से
क्योंकि ,औरत मुक्त नही होती स्नेह बन्धन से।
मुक्ति नही चाहती औरत!
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