
एक जिंदगी में, कई किरदार निभा जाती हैं,
मगर दुनिया की भीड़ में क्यों बेबस नज़र आती हैं
बेटी से माँ तक का सफ़र बखूबी निभाती हैं
ख़ुद की बात आने पर क्यूँ पीछे हट जाती हैं
बात हो अपनों की तो यम से भी लड़ जाती हैं
अपने मान पर आते ही क्यूँ लाचार बन जाती है
औरों की ज़रूरतों का बखूबी ख़्याल करती हैं
ख़ुद के वजूद पर फिर क्यूँ कदम पीछे कर जाती है
अपना आशियाँ कितने प्यार से सजाती हैं
पराया कहलाने पर क्यूँ चुप रह जाती हैं
उम्र भर सिर्फ़ लोगों का ख़्याल करती हैं
ख़ुद की ख़ुशियों को क्यूँ नज़रंदाज़ कर जाती हैं
बात अपनों की हो तो चंडी भी बन जाती हैं
ख़ुद के स्वाभिमान के लिए फिर क्यूँ नहीं लड़ पाती हैं
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