
शीर्षक : पलाश की होली
अलसाये से घने जंगलों में
पलाश की कली मुस्काई सी,
सूखी सूखी पतझड़ की साखों पर
बसन्त की कोपल देख धरा फिर उत्साई सी
बंजर और मरु भूमि पर पलाश ने
जैसे मखमली चादर बिछाई सी ।
सदियों से दर्श की प्यासी विरहिणी
पिय से मिलन पर ज्यों इतरायी सी
पलाश की पंखुड़ियों गिरती होंठों पर
जैसे गुलाबी भोर ने ली अंगड़ाई सी
चारों ओर यूं बिखरे हैं पलाश-पुष्प
जैसे किसी ने ब्रज में होली खिलाई सी
इन हवाओं ने बदला है ऐसे रुख
मदमस्त किये चली फगुनाई सी
पथरीली सी पर जमी यूँ बिछे हैं पलाश
जैसे धरती सज- धज कर आई सी
स्वच्छंद चांदनी से भरी विभावरी
अनुराग भरी ऊषा फिर से आयी सी
उदास खड़े पीत पल्लव वनों में
पलाश-लाली जैसे फ़ाग खेलन आयी थी।
Image by Bishnu Sarangi from Pixabay
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