
व्यक्तित्व की वाणी निर्मित हो ऐसी,
छू ले अंतर्मन, छाप छोड़े जीवन भर।
बन जाओ चंदन के जैसे,
जिस पर लिपटे रहते भुजंग।
विष से भरा विषधर,
ललायित पाने को सुगंध।।
बन जाओ उन फूलों जैसे,
जो छलनी करते शूल को सहते।
फिर भी कोमलता फूलों की,
भेद ना पाते शूल ही उनके।।
बन जाओ तुम उस हीरे से,
जो कोयला खदान से मिलते।
कोयले में छुपी आभा इनकी,
तराशने पर मूल्यवान हो जाते।।
बन जाओ तुम कस्तूरी से,
छुपी हुई जो मृग नाभि में।
है यह बहुत दुर्लभ, कीमती,
जान गंवाता हिरण अपनी।।
बन जाओ तुम पंकज जैसे,
जो सहता दलदल कीचड़ में।
इतने पर भी दाग न लगता,
मुस्कुरा कर कमल खिलता,
जो देवी के शीश पर चढ़ता।।
अपने मुकाम की सोचो,
अपने यश और गान की सोचो।
कुछ कर लो नेक नियति,
रोशन कर लो अपना नाम।
हो व्यक्तित्व ऐसा तुम्हारा,
याद करे तुम्हें जमाना।।
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