
शीर्षक: इंसानियत
आदमी पर डंडे बरसाते हुये पुलिस अबे ! साले तुझे मना किया था न घर से बाहर नहीं निकलना
तुम सब डंडे की भाषा समझते हो |
चल यहाँ से |
सर , सर , मैं , मैं |
सर मैं
अबे ! बकरी की तरह क्या मै , मै कर रहा है ?
सर , मैं सामान लेने जा हूँ |
घर में बच्चा भूखा है |
अबे साले जाता है या और डंडे लगाऊँ |
बाहर निकलने के बहाने है तुम लोगों के |
आदमी अपना बचाव करते हुए ,
जैसे – तैसे वहाँ से भागा |
घर आकर जल्दी – जल्दी खाना बनाया |
“धीरज, बेटा जरा सुनो |”
जल्दी – जल्दी खाना टिफ़िन में भर रहा था |
‘हाँ , पापा क्या बात है ?’
‘बेटा मै , अभी थोड़ी देर से आता हूँ | तुम खाना खा लेना |’
‘आप कहाँ जा रहे हो ? और टिफ़िन किसके लिए |’
‘ मै , मै बस अभी आता हूँ तुम अन्दर ही रहना |’
वह तेज – तेज कदमों से तपती दोपहरी जो कि शरीर को चुभ रही थी ,चलता जा रहा था |
वह कुछ ठिठ्का और मन को समझाकर उस पुलिस वाले के सामने खड़ा हो गया |
तुम ?,तुम फिर आ गये |
तुम तो वही हो न , जिसे सुबह मैंने मारा था |
हाँ ! साहब मैं वही हूँ |
ये , आपके लिए खाना लाया हूँ |
पुलिस निःशब्द सा उसे देखता रहा |
एक ये इंसान है जिसने मार खाकर भी इंसानियत निभाई |
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