
पश्चिमी मध्यप्रदेश अर्थात निमाड़ और मालवा का विशिष्ट आनुष्ठानिक गणगौर उत्सव चैत्र सुदी 10 से चैत्र सुदी 3 तक नौ दिनों मनाया जाता है। यह पावन पर्व मातृदेवी माँ गौरा की अर्चना करने के लिए मनाया जाता है।
आंचलिक विशिष्टताओं से सराबोर इस गणगौर उत्सव में शिव-पार्वती, ईश्वरराजा-गऊरबाई , ब्रह्माराजा-सईतबाई, मोलईराजा-गजराबाई, विष्णु-लक्ष्मी, चंद्र-रोहिणी की आराधना गीतों के माध्यम से की जाती है।
गणगौर ‘गण तथा गौर’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ है गण अर्थात शिव और गौर अर्थात पार्वती।
डॉ. श्याम परमार ने ‘मालवी लोकसाहित्य’ में गणगौर अर्थात ईसर (जो ईश्वर शब्द का अपभ्रंश है) को शिव माना है
और ऐसा इसलिए है क्योंकि मालवा के प्राचीन अवन्तिका में ईश्वर स्वरुप राजा महाकाल (शंकर) ही माने गए है।
यह पर्व पश्चिमी मध्यप्रदेश के अलावा पश्चिमी भारत के राजस्थान अर्थात् गुना, शिवपुरी, मुरैना, ग्वालियर तथा उत्तर प्रदेश के ब्रज और बुन्देलखण्ड में हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
इस पर्व से भारत की कृषि संस्कृति भी जुडी है।
प्रकृति ने मानव को बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ सीखाया भी यहीं से मानव को बीजों की जानकारी हुई
और साथ ही यह भी पता लगा कि सभी फसलों में गेहूँ में सबसे अधिक प्रोटीन होता है।
जो मनुष्य के लिए अधिक पौष्टिक है।
गेहूँ की घास को जवारा कहते हैं जवारे नवीन जीवन, उल्लास और ऊर्जा के प्रतीकात्मक रुप में स्थापित है।
देश-विदेश के अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि जवारों से कई औषधियाँ तैयार की जाती है
यथा – पीलिया, कायला, गंज, खल्वाट, सफेद बाल, बालझड़, मधुमेह, रक्तस्त्राव, पक्षाघात, चर्मरोग, हृदयरोग,कुष्ठ, पोलिया, एक्जिमा….. |
अमेरिका के घास विशेषज्ञ डॉ. अर्थ थोमस (जिन्होंने 4700 प्रकार की घासों पर शोध किया है) ने गेहूँ की घास को सब घासों का सम्राट बताया है।
गणगौर उत्सव में जवारे बौने तथा उनका पूजन करने का विशेष महत्त्व है।
इसे माता की प्राण प्रतिष्ठा करना या माता की मूठ रखना कहते हैं मूठ अर्थात गेहूँ बोना।
माता की मूठ चैत्र मास की ग्यारस पर रखी जाती है।
सुहागिनें कोरे वस्त्र धारण कर बाँस की छाबड़ी (टोकनियों) में गेहूँ भरकर ‘माता की बाड़ी’ में ले जाती है जहाँ इन टोकनियों में गेहूँ बोए जाते हैं।
सुहागिनें बड़े हर्ष के साथ लोकगीत गाकर माता के जवारें बोती है जैसा
- फागुन फरक्यो न s, चईत लागी गयो,
म्हारी रणुबाई जोव , छे वाट
असी रूढ़ी ग्यारस वो माता वीरों म्हारों कद आवसे
कुरकई को बढ़ावणो, झमराल भाई भूली गयो
असो लगी गयो सुपडा सी ध्यान असी रूढ़ी ग्यारस
फागुन चला गया है और चैत्र लग गया है मेरी रणुबाई राह देख रही है कि टोपलियों को बनाने के लिए मेरा झमराल भाई कब आएगा ?
वो टोकनियाँ क्यों नहीं बना रहा है जबकि सुहावनी ग्यारस आ गई है उसका ध्यान तो सुपड़े बनाने से हट ही नहीं रहा है। वह टोकनियाँ कब बनाएगा?
- म्हारा हा ए जवारां, गैहूंला सा प्यारा
सिर स ऊँचा होय रह्या जी।।
अ कुण बाया, अ कुण सींच्या, अ कण डालो मरोड़जी।
धणियर राजा बाया, बहु रणु बाई सींची तो हिमाचल जी डालो मरोड़जी।
मेरे हरे जवारे जो बहुत ही प्यारे है और सिर से भी ऊँचे हो रहे है।
इनको किसने बोया ? किसने सींचा ? और किसने इन्हें मरोड दिया ? धणियर राजा ने बोया, रणुबाई ने सींचा और हिमाचल राजा ने इसको मरोड दिया।
गणगौर प्रकृति की हरियाली और नई फसलों को बोने से संबंधित उत्सव है।
माता की मूठ रखने वाले दिन से ग्रामीण नवयुवतियाँ नौ दिनों तक पाती खेलती है।
नवयुवतियाँ अच्छे वर की प्राप्ति के लिए माँ गौरा अर्थात रणुबाई से प्रार्थना करती है।
गाँव की युगल किशोरियाँ कलश सजाकर किसी आम के वृक्ष के नीचे या नदी के किनारे एकत्रित होकर माता का पूजन करती है कोई एक युवती दूल्हे का मौढ़ बाँधती है और दूसरी दुल्हन का मौढ़ बाँधती है।
फिर गठजोड़ करते हैं और गीत गाते हुए जुलूस निकालती है ढोली आगे ढोल थाली बजाते चलता है।
किवंदती है कि भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए माता पार्वती ने अपनी सहेलियों के साथ पाती का खेल खेला था।
तब से पाती की चलन युवतियों में अपने वर की प्राप्ति के लिए प्रारंभ हुआ।
जब युवतियाँ पाती खेलने जाती है तब घर के बुजुर्ग उन्हें सीख देते हैं –
दादाजी की गोदी बठी रणबाई बोल्या
काओ ओ दादाजी हम रमवा को जावा
जाओ बेटी जाओ बेटी रमी घर आओ
लंबी सड़क बेटी दौडी मत चलजो
संकरी गली देखी न बेटी ऊबी मति जाजो
ऊँची दुकान बेटी अड़ी मति जाजो
परायो पुरुष बेटी हंसी मत करजो
सील्ला देखी न बेटी आडी मति घीसजो
नीर देखी न बेटी चीर मति धोवजो
परायो बालूडो बेटी गोदी मति लीजो
अंबो देखी न बेटी पाती मति तोडजो
‘अतिथि देवों भव’ निमाड़ और मालवा की परंपरा रही है।
पावणी बनकर आती रणुबाई का स्वागत करने के लिए पलक पावड़े बिछाकर बैठे रहते है।
शाम के समय गणगौर उत्सव की छटा देखते बनती है। जब गणगौर की प्रतिमाओं को आँगन में रखा जाता हैं
और सभी सुहागिनें मिलकर गीत गाकर झालरियाँ नृत्य करते हुए माँ के पधारने की उत्सव मनाती हैं।
सोना रुपा का घड़ा घड़ी न रेशम लंबी डोर
ओ झालरियों द……
बेटी म्हारी गंगा भरिया, जमना भरिया जाय कवेरी झकोल
ओ झालरियों द
बेटी म्हारी पयल जो आणो ससरा जी आया,
धवल घोड़ो लाया ओ झालरियों द
पिता जी अब को आणो पछो फेरी देवो,
खेली लेवा फूलन पाती, ओ झालरियों द
सोने और चाँदी के घड़ो में लंबी रेशम की डोर बँधी हुई है।
रनुबाई अपनी सखियों के साथ खेल रही हैं। तभी उनके ससुरजी लेने आ जाते हैं।
रनुबाई के पिता बेटी को समझाते हैं कि अब खेलना बंद कर दो तुम्हारे ससुरजी तुम्हें लेने आए हैं।
रनुबाई नखरे करती हुई कहती हैं कि इस बार उन्हें लौटा दो, मैं ससुरजी के साथ नहीं जाऊँगी।
इस प्रकार रनु बाई अपने ससुराल से आए जेठ, देवर, नंदोई सभी को लौटा देती है
किंतु जब रनुबाई को लेने स्वयं धणियर राजा आते हैं तो पिता समझाते हैं कि तुम्हें स्वयं तुम्हारे स्वामीजी लेने आए है जो हाडा वंश के कुँवर कन्हैया हैं इन्हें लौटा नहीं सकते।
तब रनुबाई कहती है कि चैत्र मास की कड़ी धूप में मेरी गोदी में जो छोटा बालक है वो कुम्हला जाएगा।
इसलिए मैं नहीं जाऊँगी। तब पिता कहते हैं कि तंबू वाली गाड़ी में जाना, तुम्हें छाता लगवा देगें।
इस प्रकार रनुबाई किसी भी तरह से ससुराल जाने के लिए तैयार नहीं हो रही हैं क्योंकि वो अपनी सखियों के साथ खेलना चाहती है।
झालरियाँ से तात्पर्य है देवी की सेवा करना।
इस नृत्य में मग्न सुहागिनें रतजगा कर माँ से अपने परिवार की कुशलता की कामना करती है। फिर ‘तमोल’ (जवार की धानी, चने और मूंगफली के साथ) बाँटा जाता है।
तमोल बाँटते हुए सभी महिलाएँ माँ रणुबाई से ठिठौली करती है और गीत गाती है –
दवो-दवो रणुबाई आज की दाडकी द
म्हारी आज की भी द, म्हारी काल की भी द
म्हारी परू की गई वो पल्यांग आज की दाडकी द।
हे! रणुदेवी मुझे मेरे काम का मोल प्रदान करो।
मुझे आज का भी मोल दो, कल का भी मोल दो और परसों का कोई बात नहीं नहीं भी दोगी तो चलेगा।
इसके बाद रणुबाई से घर जाने की अनुमति माँगी जाती है
जिसमें सुहागिनें घर क्यों जाना चाहती है उसके कारण बताती है और माँ से मनुहार करती है।
दवो-दवो रजा घर जांवा म्हारी रणुबाई वो
म्हारा गोबर भरा पाव म्हारी रणुबाई वो
म्हारा गोरस भरा हाथ म्हारी रणुबाई वो
म्हारा अंगारा प सींच भात म्हारी रणुबाई वो
म्हारी चल्हा प चुड रही दाल म्हारी रणुबाई वो
म्हारा ससराजी जीमड बैठ्या म्हारी रणुबाई वो
म्हारी सासुजी से गाठ म्हारी रणुबाई वो
म्हारी ननंद क चुगली की बाड म्हारी रणुबाई वो
म्हारा देवर मरोड म्हारा गाल म्हारी रणुबाई वो
म्हारा स्वामीजी को अकडु स्वभाव म्हारी रणुबाई वो
इस प्रकार निमाड़ और मालवा की अधिष्ठात्रि देवी गणगौर समस्त साधारण परिवारों की देवी है।
वह मन को पवित्र करने तथा मनोकामनाओं को पूरा करने वाली देवी है।
गणगौर एक सहृदय मानवी लोक देवी है जिसमें स्नेह है, प्रकृति से उसकी घनिष्ठता है, उसमें आँचलिकता है,
उसमें नारी हृदय की शक्ति है, एकाग्रता है। सभी उसके आँचल की छाँव में बैठकर तरना चाहते हैं।
डॉ. महेन्द्र भानावत कहते हैं –
“गणगौर का उद्भव – अर्थ कुछ भी रहा हो। आज तो यह गणगौर नारियों के अटल अमर सुहाग की प्रतीक बनी हुई है।
संज्या जहाँ लड़कियों के लिए लोकदेवी, पाहुनि, बहिन, सखी, सब कुछ है
वहाँ गणगौर इन लड़कियों के लिए अच्छा वर घर देने वाली माता है।
छोटी लड़कियाँ गणगौर को पूजती हैं तो वे भी उसे देवी रुप में ही पूजती हैं
परन्तु महिलाओं में जहाँ गणगौर सुहागदायिनी है,
वहाँ वह उनकी पोड़सी किशोरी कन्यारुप भी है।
जिन्हें वह परिणिता लड़की की तरह अन्तिम दिन विदा करती हैं।” (2)
ग्रंथ सूची
- गणगौर – वसन्त निरगुणे / रमेश चंद्र तोमर
- डॉ. महेन्द्र भानावत – राजस्थान की गणगौर
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