
गणगौर पर्व हमारे निमाड़, मालवा अंचल का लोक पर्व है।
यह मुख्य रूप से देवी के अनुष्ठान का पर्व है।
इस पर्व में हम माता के रनादेवी के रूप की पूजा करते है।
गणगौर – पांच देवियों का पर्व
गणगौर जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है गण याने समूह याने कि जन मानस के लिये है ये शब्द, औरगौर याने कि सखियां।
पांच देवियाँ, अपने मायके सखियों के रूप में आती है अपने प्रिय परिजनों से मिलने के लिये।
इस त्यौहार पर हम देवी के पाँच रूपों की आराधना करते है।
मान्यता है कि यह लोक इन देवियों का मायका है, और ये देवियां साल भर में आठ दिनों के लिये अपने मायके आती है।
अपने मायके वालों से मिलने।
ये पांचों देवियां–सईतबाई, लक्ष्मी बाई, गउरबाई, रोहेणबाई, और रनुबाई है।
जो कि क्रमशः ब्रम्हा,विष्णु,महेश और चंद्रमा और सूर्य की पत्नियां है।
हम उस ईश्वरीय शक्ति की ओर प्रक्रति की भी पूजा करते है।
चन्द्रमा और सूरज ये पृथ्वी के साक्षात देव है।
सूर्यदेवता तो इस जग के अधिष्ठाता देव है।इनकी भी आराधना करते है।
देवी देवताओं का स्वागत भी हमारे यहाँ पर बेटी और दामाद के रूप में ही किया जाता है।
इस पर्व का नाम आते ही हमारे मन में उमंगे, और खुशी झलकती है।
इस पर्व को पूर्णतः गीतों भरा त्यौहार भी कह सकते है।
यह दस दीनी त्यौहार है। गणगौर माता का कोई भी कार्य बिना गीतों के सम्पूर्ण नहीं होता।
माता की बाड़ी
हमारे यहाँ यह रीति है कि बाड़ी एक ही स्थान पर बोई जाती है उस स्थान को थानक कहा जाता है।
गणगौर पर्व की शुरुआत चैत्र माह के कृष्णपक्ष की एकादशी से हो जाती है।
बाड़ी, याने की माता का स्थान, कोठड़ी या मढ भी कहा जाता है।
उस स्थान को पवित्रता के साथ लिप पोत कर तैयार किया जाता है।
एकादशी के दिन, गांव की महिलाएँ गाते बजाते हुये होली जलने के स्थान पर जाते है|
और वहाँ से एक बाजूट पर होली की राख, और पाँच कंकर,जिसे खड़ा कहते है, जो कि गौर माता का प्रतीक होती है पूजा करके मढ में लाते है।
होली और गणगौर
होली की राख का भी अपना एक महत्व है।
होली जलना भी एक यज्ञ है, हवन है, इसका भी पौराणिक महत्व है।
और यज्ञ और हवन की राख विभूति का काम करती है, और उस विभूति को रखकर देवी का आवाहन किया जाता है।
बाड़ी में इस बाजूट को एक मूल स्थान पर रखकर, होली की राख में गेहूँ, दही, पानी मिलाकर उसे पाँच मुठ्या का आकार दिया जाता है|
जो कि पाँच देवियों का प्रतीक है।
जिंन्हे गौर के पास में रखा जाता है।
इस प्रकार माता का जवारे बोने की शुरुआत की जाती है।
जिसे की मूँठ रखना कहा जाता है।
एकादशी के दिन, गाँव के हर घर से पाँच बांस की टोकनियाँ और दो दीपक देते है जिंन्हें सरावला कहा जाता है।
पंडित, बहुत ही पवित्रता के साथ इन टोकरियों में मिट्टी और सूखे उपलों का भूसा, जिसे कि केशर, कस्तूरी नाम दिया है|
उस मिश्रण में गेहूँ बो देते है, जो तीसरे दिन से ही जवारों के रूप में बढ़ने लग जाते है।
रोज पवित्रता के साथ उनको सींचते है जिसे सेवा करना कहा जाता है। सौभाग्यशालियों को ही बाड़ी बोने का अधिकार मिलता है।
आठ दिनों तक बाड़ी में बहुत धूमधाम रहती है।
सुबह-शाम जवारों को सींचना, पूरी तरह से अजोग करके,याने कि कोई किसी बाहरी व्यक्ति की छाँया भी नहीं पड़नी चाहिये।
केवल बाड़ी वाले, जिंन्हे कि परसाईजी कहा जाता है।
वे और उनके परिवार वाले ही माता की आठ दिनों तक सेवा, आरती, नैवेद्य कर सकते है।बड़े भाग्यशाली होते है वे लोग।
सात दिनों तक, जब से बाड़ी बोई जाती है|
रोज रात को पूरे गाँव की महिलाएँ बाड़ी में एकत्रित होकर गणगौर माता के भजन गाते है|
भजनों का स्वरूप भी ऐसा कि उन भजनों में पूरे जीवन का रस रहता है।
गणगौर के गीत
देवी को नहलाने, श्रंगार कराने से लेकर, रनुबाई से हँसी मजाक करने के अंतर्गत, उनके ससुराल की बात, धणीयर राजा का नाम लेकर चुटीले हास्य गीत भी रहते है|
याने कि जीवन के हर रंग, सास-ससुर, ननद देवर के साथ में किस तरह से सामंजस्य बिठाकर ससुराल में रहना चाहिये|
या कि परिवार में कैसे एक ग्रहणी को पारस्परिक संतुलन बिठाना, सभी के दिल में किस प्रकार जगह बनानी है।
ये सभी एक बेटी के प्रति जो सीख रहती है, वही इन गीतों के माध्यम से दी जाती है।
ननद भाभी के हंसी मजाक के गीत से लेकर सास-ननद के अनुशासन में कैसे रहा जाय। ससुराल के नियम कायदे कैसे सीखें जाय।
गीतों में यही जीवन जीने की कला को गीतों के माध्यम से बता दिया जाता है। लेकिन मधुर मधुर मीठे बोल रहते है गीतों के।
एक खास बात और है इन गीतों में, इस पर्व ने वर्ग भेद को मिटा दिया है। सभी वर्गों को बराबरी का दर्जा दिया है।
जैसे कि सुतार भाई से प्रार्थना की जाती है कि भाई हम तुमसे विनती करते है, कि हमारी माता के लिये बाजूट बना लाना।
इसी तरह से झमराळ भाई से टोपली, रंगरेज भाई से चुन्दडी, पिंजारे से रुई बत्ती, माली से फूल गजरा लाने की विनती की जाती है।
कितना अच्छा समावेश है इन गीतों में सभी वर्ग की समानता का। रात रात भर नाँच गाने चलते है।
सातों दिनों तक बाड़ी में देर रात तक गीतों की गूँज रहती है।
इन सात दिनों में एक दिन पाती खेलने का भी रहता है।
महिलाएँ स्वांग बनाती है किसी एक दूल्हा दुल्हन का जोड़ा बनाकर सभी गाँव की महिलाएँ जंगल मे, जहाँ कि अमराई हो, हरियाली हो।
वहाँ पर जाती है, और वनस्पति, पेड़ पौधों की भी पूजा करते है।
जिनका कि हमारे जीवन में बहुत महत्व है।
वाड़ी की पूजा
अब आठवें दिन बाड़ी खोलनें से पहले घर की महिलाएँ सभी टोपलियों के जवारों को नाडा बांधते है|
जिसे माता का सिर गूँथना कहा जाता है।
फिर पूजा-आरती, नैवेद्य-प्रसादी लेकर, सभी आम लोगों को दर्शन करने, पूजने करने के लिये बाड़ी के कपाट खोल दिए जाती है।
जिसे की जगमाय होना कहते है।
हरी भरी बाड़ी खुलते ही माता के जयकारों से वातावरण गूँज उठता है।
जवारों में सचमुच माता का ही प्रतिबिम्ब दिखाई देता है।
श्रद्धालु नतमस्तक हो जाते है।
भरी वाड़ी की पूजा करने का बहुत महत्व है।
जब तक पूरा गावँ पूजा नहीं कर ले, तब तक कोई माता को घर नहीं ले जाते।
दोपहर बाद सभी लोग अपने अपने घर से रथ सिंगार कर गाजे बाजे के साथ वाड़ी में माता को लेने पहुंचते है।
बहुत ही श्रद्धा के साथ देवी को मना कर गाते-बजाते हुये घर ले जाते है।
श्रद्धालु घर लाकर सभी परिजनों के साथ माता का भावभीना स्वागत करते है।
इसे लगता है कि मानों बेटी बहुत दिनों बाद ससुराल से आई हो।
पूरा परिवार और सारे रिश्ते नाते के लोगों को बुलाया जाता है और एक उत्सव का रूप बन जाता है।
ब्राम्हण भोजन, दान-दक्षिणा का दौर चलता है।
शाम को गावँ की महिलाएँ घर घर जाकर माता के गीत,गाती है। तमोळ बटता है।
प्रसाद में ज्वार, मक्की की धाणी, चने और मुंगफली। जिसे माता का मेवा नाम दिया है। रात भर माता के गीत चलते है।
माता की बिदाई
दूसरे दिन माता की बिदाई का होता है।गीतों में भी बिदाई की पीड़ा दिखती है।
सखी सहेलियों के साथ रनादेवी बाग-बगीचे,घूमने जाती है। मन नहीं करता कि ससुराल जाये।
लेकिन धणीयर राजा लिवाने आ गये है। जाना तो पड़ेगा।
वीराजी भी रोकते है कि कल चले जाना। लेकिन दामादजी तो घोड़े पर सवार होकर आये है, और आज ही ले जायेंगे।
रनुभाई से भी भाभियाँ धणियरजी का नाम लेकर हँसी-मजाक करके,चुटकियाँ लेती है।
विदाई गीत भी ऐसे गाये जाते है कि बरबस आंखों से आँसू आने लगते है।
भरे मन से सभी से गले लगकर गणगौर देवी अपने ससुराल के लिये विदा होती है।जल्दी ही बुलाने की उम्मीद लेकर।
माता के रथ घर लाकर शगुन के तौर पर सिर पर रखकर नाचने की प्रथा है।
अगर किसी की मानता हो तो दूसरे दिन रथ उस मनोरथी के घर ले जाये जाते हैं।जिन्हें कि रथ बौड़ाना कहते है
जन मानस का पर्व
गणगौर एक ऐसा त्यौहार है, जो जन मानस की भावनाओं से जुड़ा है।
ग्राम्य जीवन की वास्तविकताओं के दर्शन है इसमें।
देवी देवताओं और धार्मिक आस्था से जुड़े ये त्यौहार जीवन की वास्तविकताओं से परिचित करवाते है।
गणगौर का त्यौहार ऐसे समय में आता है जब फसल कटकर आ चुकी है। कृषक वर्ग फुरसत में है।
आर्थिक रूप से भी हाथ मजबूत है। ऐसे में माहौल और खुशमिजाज हो जाता है।
लोगों की धार्मिक आस्था भी मजबूत हो जाती है।
दुगुने जोश खरोश से जिंदगी चलने लगती है।एक नई ऊर्जा पैदा हो जाती है।
एक और खास बात धर्म के माध्यम से, मीठे मीठे गीतों के जरिये बेटियों को जीवन जीने की उचित शिक्षा मिल जाती है।
वो भी बिना कुछ कहे।
क्योंकि बेटियां यह सब देख सुनकर अपने आप को उसी रंग में ढालने लग जाती है।
हर माता पिता चाहते है कि बेटियों को अच्छा घर परिवार मिले और सुखी रहे।
image courtesy khargone.nic.in
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