
ऋतुराज का स्वागत, देवी सरस्वती प्राकट्य
हिन्दू कैलेंडर के ग्यारहवें महीने “माघ” मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को बसन्त पंचमी कहते हैं।
हमारे यहाँ ऋतुओं को छः भागों में बाँटा गया है; बसन्त ऋतु सभी ऋतुओं का राजा है , यह त्यौहार बसन्त ऋतु के आगमन की खुशी में मनाया जाता है। इस दिन से कंंपकंपाती शीत से छुटकारा मिलता है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी और प्रकृति भी कड़कड़ाती ठंड के मारे सिकुड़े घरों में सिमटे हुये निजात पा जाते हैं।
खुशनुमा बसन्त ऋतु, के आने से प्रकृति का कण -कण खिल उठता है।प्रकृति में बदलाव महसूस होता है। पतझड़ का मौसम समाप्त होता है, इस दिन से प्रकृति में निखार आना शुरू हो जाता है, चारों ओर हरियाली और सुहाना मौसम मन को प्रफुल्लित कर देता है।
पेड़ पौधों पर नव-पल्लव आने शुरू हो जाते हैं।खेतों में सरसों की मानों पीली चादर बिछ जाती है। गेहुंओं पर बाली आ जाती है।आम पर मौर आ जाते हैं।रंगबिरंगे फूल खिल जाते हैं। बागों में भौरे, तितलियाँ गुंजार करते हैं। कोयल की कूक सुनाई देने लगती है। मानव तो क्या पशु-पक्षी भी उल्लास से भर जाते हैं।यह त्योहार बसन्त ऋतु के स्वागत करने का है।
शास्त्रों में महत्त्व
धार्मिक महत्त्व शास्त्रों के अनुसार–बसन्त पंचमी, विद्या की देवी माँ सरस्वती के प्राकट्य का दिन है। कहते हैं कि विष्णु जी के आदेशानुसार, जब ब्रम्हाजी ने सृष्टि की रचना की। मनुष्य, पशु-पक्षी, प्रकृति बनाये। तब उन्हें अपनी रचना में कुछ कमी नजर आई। सब कुछ मौन था। सूनापन था, एक प्रकार का सन्नाटा था।
ब्रम्हाजी ने भगवान विष्णु को अपनी समस्या से अवगत करवाया। तब विष्णुजी ने आद्य शक्ति माँ अम्बे का आव्हान किया। माँ प्रकट हुई। तब दोनों देवताओं ने उनकी स्तुति की, ब्रम्हाजी ने अपना संकट सुनाया, और उसे दूर करने का निवेदन किया।
माँ दुर्गा के तेजस्वी शरीर से एक दिव्य प्रकाश पुंज निकला, जो एक नारी के रूप में बदल गया।जिसका स्वरूप चतुर्भुज था।जिनके एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में माला, तीसरा हाथ वर मुद्रा में, और चौथे हाथ में पुस्तक धारण की थी।
देवी से ब्रम्हाजी ने वीणा वादन करने के लिये प्रार्थना की; तब देवी ने वीणा के स्वरों को बिखेरना शुरू किया।वैसे ही धरती में कम्पन हुआ, और चेतना का संचार हुआ।धरती का सूनापन खत्म हुआ।प्रकृति की हर चीज को आवाज मिली।गगन में नाद ब्रम्ह की गूँज हुई।
मनुष्य को वाणी मिली, पंछियों में कलरव ध्वनि उत्पन्न हुई, हवा में सरसराहट हुई, जलधारा में कलकल शब्द हुआ, तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार करने वाली देवी को सरस्वती नाम दिया।
सृष्टि में वाणी प्रदान करने के कारण इनको वाग्देवी कहा गया।संगीत की उत्तपत्ति के कारण माँ शारदा भी कहा गया। इन्हें वागेश्वरी, वीणा वादिनी, सावित्री, भगवती, कहकर देवताओं ने अनेक प्रकार से स्तुति की, तब आद्य शक्ति माँ दुर्गा ने ब्रम्हाजी से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न होने वाली ये देवी आपकी पत्नी ब्रम्हाणी बनेगी, ये आपकी शक्ति है।इतना कहकर देवी अंतर्धान हो गई।
पुराणों में उल्लेख है कि जब श्रीकृष्ण ने पहली बार बाँसुरी वादन किया, तब माँ सरस्वती बाँसुरी में विराजमान हो गई, और संगीत की देवी कहलाई।इससे खुश होकर श्रीकृष्ण ने वरदान दिया कि बसन्त पंचमी के दिन आपकी पूजा होगी। तब से इस दिन को सरस्वती के जन्मदिन के रूप में मनाते हैं।
विद्यारम्भ पर्व
पारम्परिक रूप से ये त्योहार बच्चों की शिक्षा के लिये शुभ माना जाता है।यह ज्ञान और कला और बुद्धि की देवी मानी जाती है। कुछ राज्यों में इसे विद्यारम्भ पर्व भी कहा जाता है।
स्कूलों में इस दिन विशेष पूजा का आयोजन होता है।विद्यार्थी अपनी पुस्तक एवं कलम दवात की पूजा करते हैं। इनकी पूजा से विद्यार्थियों को विद्याध्ययन में कोई समस्याएं नहीं आती। कुशाग्र बुद्धि के स्वामी बन जाते हैं।यह प्रथा गुरुकुलों के जमाने से चली आ रही है।इस दिन गुरुजनों का सम्मान किया जाता है। कलाकार अपने वाद्य यंत्रों का पूजन करते है।
पौराणिक प्रसंग–पुराणों के अनुसार, जब श्रीरामजी माता सीता की खोज करते हुये दण्डकारण्य वन में पहुंचे।वहाँ उनकी भेंट माता शबरी से हुई।श्रीराम ने शबरी की कुटिया में एक शिला पर बैठ कर माता के झूठे बेर खाये। वह दिन बसन्त पँचमी का था।उस अंचल के लोग उस शिला का आज के दिन पूजन करते है।पास ही माता शबरी का मंदिर है।जहाँ इस दिन बहुत धूमधाम रहती है।
ब्रज में तो बसन्तपंचमी के दिन से ही ठाकुरजी को रंग गुलाल लगाना शुरू कर देते है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस दिन महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त शिरोमणि श्री नामदेवजी का जन्म भी हुआ था।एक और प्रसंग–पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी पर शब्दभेदी बाण चलाकर उसका अंत किया था वो यही दिन था।
परम्परा है कि इस दिन स्त्रियां पीले वस्त्र पहनती है।पुरुष पीली पगड़ी धारण करते है।हमारे धर्म में पीले रंग को समृद्धि,ऊर्जा,और सौम्यता का प्रतीक माना जाता है।इस रंग को बसन्ती रंग भी कहा जाता है।
या देवी सर्वभूतेषु विद्या रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।
विद्या रूपी देवी को हम नमस्कार करते है।
कैसे करें पूजा
जिस स्थान पर पूजा करें, वह जगह साफ सुथरी हो।माँ सरस्वती की प्रतिमा या मूर्ति रखे। माँ सरस्वती के श्वेत वस्त्र पहने कमलासन पर स्थित स्वरूप का ध्यान करें। माँ सरस्वती अम्बे माँ का ही एक स्वरूप है। इस दिन भगवान विष्णुजी के पूजन का भी विशेष महत्त्व रहता है।
- साफ आसन पर बैठे।
- थाली में पूजन सामग्री रखें।
- जल के कलश पर आम के पत्ते सजाएँ।
- हमें जो भी दान स्वरूप सामग्री देनी हो वह भी पास में रख लें, जहाँ तक बने पीली चीजों का दान करना चाहिये।
- हमारे कार्य सम्बन्धी चीज, याने कि शिक्षक हों या विद्यार्थी हों तो पुस्तक, डायरी, या फिर व्यवसाय हो तो उसके सम्बंधित चीज माँ के समक्ष रख दें।
- पीला और सफेद नैवेद्य अर्पित करें, केशरिया चावल और खीर का प्रसाद रखें।
- माँ की धूप दीप, हो सके तो श्वेत चंदन से पूजन करें।
- पीले और सफेद फूल माँ को चढायें।
- आज के दिन आम के मौर और गेंहू की बालियाँ चढ़ाने का विशेष महत्व है।
ओम ऐं सरस्वत्यै नमः
- इस मंत्र से माला का जाप भी करें।
- गुड़,घी,और सरसों के दाने तिल चावल मिला कर छोटा सा हवन करके— ओम ऐं नमः स्वाहा मन्त्र से आहुतियाँ भी डाल सकते है।
माँ सरस्वती से ज्ञान,अच्छी वाणी, मागें,अच्छे विचार मागें।घर में सुख शांति आएगी। अपने बच्चों को भी ये संस्कार डालें कि अपनी पुस्तकों, अपने पढ़ाई लिखाई की चीजों की, अपनी कुर्सी-मेज की, जिस पर बैठ कर माँ सरस्वती की साधना करते है, स्कूल बैग की इस दिन पूजा करे, और उनकी सार सम्हाल करना सीखें।विद्यादायिनी माँ पर जिसकी कृपा हो जाती है, वे अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के होते है। उन्हें आगे ही आगे बढ़ने के अवसर मिलते है।
पुराणों में इस दिन को ऋषि पंचमी नाम से भी उल्लेखित किया है। ज्योतिष के अनुसार, बसन्तपंचमी के दिन को अबूझ मुहूर्त माना गया है। इस दिन कोई भी शुभकार्य कर सकते है।इसके लिये मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती।
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बहुत रोचक जानकारी।