पंचज – भाग ३

पर्यावरण संतुलन

पिछले अंकों में आपने पढ़ा कि किस प्रकार से धरती को प्रकृति ने अपने अमोल उपहारों से श्रृंगारित कर, मानव जाति को अपने जीवन जीने का अवसर प्रदान किया और मानव समाज ने अपने जीवन यापन के तौर तरीकों को अपनाया, तथा सामाजिक तौर पर अपने आप को नियमित करने के लिए नियम कानून व्यवस्था की …… इसी कड़ी में आगे ….

कालचक्र के चलते हुए , समय , परिस्थिति और क्षेत्र के अनुसार नए नियम बनते रहे , आज भी परम्परा क़ायम है ।

-नियमों में परिवर्तन भी होता रहा/होना चाहिये
-जीवन शैली में समय अनुसार परिवर्तन होता रहा/होना चाहिये
-प्रातः काल उठकर दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर दोनों हाथों की रेखा को मिलाकर प्रकृति को धन्यवाद देते हुए, अपनी हथेलियों को आँखों पर रखते थे,

ताकि कर्मशील हाथों और कर्मदृष्टि नजर को एक नवीन ऊर्जा पदत्त हो ,

ततपश्चात खड़े होकर सम्पूर्ण शरीर को विपरीत दिशा में खिंचाव के साथ एक लंबी अंगड़ाई लेकर पूरे शरीर को जागृत करते थे,

इसी श्रंखला में फिर आधे शरीर को झुकाकर धरती माँ के चरण स्पर्श करने के पश्चात ,

खुली हवा में आकर आँखों पर जल के छींटे देकर मुँह धोकर, हाथ पाँव धोते थे

यह तत्कालीन व्यायाम और योग था,

फिर क्या निकल पड़े Morning walk के लिए ,

रास्ते में जो नीम/बबूल का पेड़ मिला उसकी पतली टहनी तोड़कर दाँत से उसका ब्रश बनाकर उसमें से ही पेस्ट निचोड़ते हुए 

चल पड़े नदिया किनारे ( हाँ साथ में धोती, लोटा लँगोट / साड़ी ब्लाऊज ले जाना नहीं भूलते )

नदी से लोटा भर पानी लेकर कुल्ला करते हुए , मुँह से रातभर में इकट्ठा हुई गन्दगी को बाहर करते हुए,

फिर लोटा भरकर आसपास कहीँ झाड़ में सोन खाद देकर Fresh हो लिये , ततपश्चात Open and unlimited Bathtub में स्नान, ध्यान, लोमविलोम इत्यादि करते हुए ,

कपड़े बदलकर पुराने कपड़े धोकर , सूखने डाल दिये,

लोटे को अच्छी तरह माँज धोकर उसमें जल भरकर सूर्य देवता को अर्ध्य देकर ॐ शब्द उच्चारित कर अंदर तक की सफाई की ,

फिर लोटा/घड़ा भरकर घर की ओर चल पड़े , नाश्ते में ज्वार/मक्का/गेहूँ की रोटी, चटनी, दूध , अचार, दही (उपलब्ध अनुसार) खाकर , महिलायें और पुरूष अपने अपने कर्मक्षेत्र की ओर रवाना …..

चूल्हा जलाने के बाद चूल्हे की आग में कितनी गर्मी है , पता नहीं , पहली रोटी कैसी बनी , पता नहीं इसलिए पहली रोटी गाय की

उसके बाद तो कमांडर , रोटी सेकने वाले हाथ और निगाहें हो जाती है ,

साथ ही मन और मस्तिष्क  भी साथ साथ चलते हुए स्नेह, प्यार और सम्मान के साथ स्वादिष्ट खाना बनता जाता है ,

अंत में भी वही बात चूल्हे की गर्मी कम कर दी है पर आँच कितनी है , पता नहीं , तो यह आखिरी रोटी कुत्ते की,

ब्राह्मण घर में , किसान खेत में, क्षत्रिय मैदान में और सहायक वर्ग भी कच्ची जमीन पर पत्ते/थाली पर भोजन परोसकर ग्रहण करते थे ,

जमीन पर कीड़े मकोड़े घूमते रहते हैं, वो खाने तक नहीं आ पायें इसलिए पत्ते/थाली के आसपास जल की लक्ष्मण रेखा खींचकर उन जीव जंतुओं के लिए भी कुछ कौर परोस देते थे।

अर्थात् स्वयं के साथ साथ पशु पक्षियों जीव जंतुओं का भी ध्यान रखा जाता था ।

वर्तमान में इस तरीके में परिवर्तन के साथ परम्परा कायम है,

किन्तु टेबल पर जल की लक्ष्मण रेखा खींचने की परंपरा तोड़ सकते हैं ।

इसी प्रकार गर्म क्षेत्र में ठंडा अनाज, ठंडे क्षेत्र में गरम अनाज खाया जाता था

ऐसे ही मौसम अनुसार खाने का चयन किया जाता था।

मौसम और प्रकृति अनुसार जीवन शैली अपनाई जाती रही है …….

इस सम्बंध में अगली और अंतिम कड़ी में फिर मुलाकात होगी

धन्यवादम

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Image by Bela Geletneky from Pixabay


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About मोहन कैलाशचंद्र गावशिन्दे 3 Articles
मोहन कैलाशचंद्र गावशिन्दे , खरगोन व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर, स्फटिक, कुंदावाणी और किंग ऑफ न्यूज़ साप्ताहिक कार्य, जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन में समन्वय एवं जिला प्रशिक्षक के तौर पर कार्यानुभव
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विभा गावशिंदे
विभा गावशिंदे
2 years ago

बहुत बढ़िया लेख