
शीर्षक: धीरे धीरे रे मना
आज मैंने धीरे-धीरे सूरज उगते हुए देखा आज मैं बहुत जल्दी उठ गई।
बहुत जल्दी माने 4:00 बजने को 10:00 मिनट पर।
बहुत सुख से थोड़ी देर 4:00 बजने का इंतजार किया।
मैं सोचती हूँ मैंने सुबह 4:00 बजने का इंतजार ही क्यों किया ??
उठी और योगा प्रारंभ कर दिया, प्रारंभ इसलिए कर दिया आंखों में नींद का दूर-दूर तक पता नहीं था।
क्या करती अंधेरे में प्रारंभ तो अनमने ढंग से किया था, पर धीरे-धीरे उस में तेजी आती गई।
शायद खून में गर्मी आती ही होगी।
हाँथ पैरों को सहलाया, जिन्होंने मुझे 70 वर्ष, एक कम 70 वर्ष तक साथ दिया, और साथ अभी भी दे ही रहे है।
और उसके बाद पूरी तरह से योगा चालू किया।
एक एक करके सारे आसन करती गई, पूरे आसन हो गए, तो पानी गर्म किया और नहा लिया।
नहा कर चुपचाप आकर बालकनी में बैठ गई, और देखती रही आसमान को।
आसमान पूरी तरह एक रंग का हल्का सा दिख रहा था।
धीरे-धीरे रोशनी पेड़ों के पीछे से आती जा रही थी।
मैंने नजर डाली हरा रंग भी कितने तरह का होता है, कहीं हल्का था कहीं गाढ़ा।
घास एकदम ही सुनहरे हरे रंग की थी,,पत्तियां भी तीन तरीके से हरे रंग में रंगी थी।
अरे वाह इसके पहले एक रंग में इतने रंगों का समाना देखा ही नहीं।
हमारे आसपास जैसे-जैसे दिन चढ़ता जाता है ।
कैसे कैसे रंग मनुष्य में उतरते जाते हैं।
किसी का खुशरंग मन, किसी का बदरंग मन, कोई दूसरे के रंगों से हैरान परेशान।
पेड़ों जानवरों में रंगों को लेकर ऊंच नीच होता क्यों नही, वे शायद हमारी तरह बौद्धिक विकास कर ही नही पाए।
वर्ना सफेद शेर के पंजों के नीचे काले भालू की गर्दन दबी होती।
वो अपना धार्मिक विकास भी नही कर पाए, बस फल देने में ही लगे रहे।
चिड़िया, कागा, चीटी सांप सब के सब पाल लिए, कोई हद नहीं कोई आरक्षण नही|
हम विकास कर लिए है बल्कि विकास की हदें पार करते ही जा रहे है।
अस्पताल भले तोड़ डालो पर मंदिर मस्जिद पर नजर भी डाली तो काट के रख देंगे।
मैं तो इतने गंवार पेड़ों को अब बर्दाश्त नहीं करने वाली।
विकास नही करोगे तो सिम्पल सी बात है, या तो काट दिए जाओगे या बहुत बदतर स्थिति हो जाएगी।
अब एक पेड़ की पत्ती केवल गाढ़ी हरी दूसरे की हल्की हरी।
एक पेड़ एक ही तरह की चिड़ियों को प्रश्रय देगा दूसरा पेड़ दूसरे तरह की चिड़ियों को ।
सब आपस मे एक दूसरे से गड्ड मड्ड होते रहते हैं, अपनी अपनी जात निश्चित कर लो अपना अपना धर्म और अपना अपना रंग।
देखो हम कितने सुखी है।
मोटर गाड़ी में बैठे और अपने रंग वालों धर्म वालो से खुशरंग बतिया लिए।
हमने सब धर्मों के मुंह कान नाक चंदा सूरज सब सोच सोच कर बना लिए है और अपने ही बनाये कल्पनाओं के खाके से झकास वरदान मांगते रहते है।
तुम मूर्ख देने में ही लगे हो, कभी लकड़ी दोगे कभी डाली कभी पत्ती और कभी फल।
हम तो कभी कभी तुम्हे भी लाल टीका लगा वरदान मांग लेते है।
अरे घामड़ उस्तादी सीखो, उस्तादी।
सुबह का चाय का समय निकला जा रहा है अब और कितना समझाऊं ।
दूर से देखा पंडित मंदिर का दरवाजा खोल रहे थे और अजान की आवाज आ रही थी।
अब चाय तो बनती थी
समझाऊंगी कल कुछ जानवरों को भी ,कुछ तो प्रगति विकास करे, निरे उल्लू ही है वो भी।