
शीर्षक: लहलहाता मानव समाज
दो दिन पूर्व हम खण्डवा के करीब ब्रह्मगिर जहाँ गुरु गादी स्थल है । वहाँ गये।
रास्ते मे बहोत ही सुंदर ओर सुहाने सफर का आनंद लिया।
दाएं ओर बाएं दोनो ओर हरियाली ही हरियाली नजर आ रही थी।
प्रकृति की सुंदरता और किसान की मेहनत दोनो ही सूर्य की रोशनी में अपनी चमक बिखेर रही थी।
पूरी फसल हवा की मंद मंद चाल के साथ ऐसे लहलहा रही थी ।
मानो किसी फैशन शो में अपना हुनर दिखाते हुवे केट वाक कर रही हो।
और वही कुछ तेज हवा के साथ फसल ऐसे झूम रही थी ।
जैसे सखियो का झुंड एकसाथ अटखेलिया करते हुवे खुशी से झूम रही हो।
और गेहूं की बालिया एक दूसरे से ऐसे आपस मे झूम ओर टकरा रही थी ।
जैसे दो सखिया आपस मे मन की बात कह दिल से एक दूसरे को देख कांधे पर अपना सर रख प्यार से मुस्कुरा रही हो।
पूरी फसल को देख मानो ऐसा एहसास हो रहा था जैसे कोई शादी घर हो और तमाम सगे सम्बन्धी एकत्रित हुवे हो ।
और आपस मे अपने हाल समाचार कह सुन रहे हो।
कुछ गेंहू की बालिया छोटी रह गई तो एक बाल सखा की तरह खेलती नजर आ रही थी अपने बडो के साथ।
दूर दूर तक लगातार कई खेतो को आपस मे जुड़े देख जैसे कोई सामाजिक एकता का कोई उत्सव मन रहा हो ।
मैं जितनी बार गेंहू की बालियों को देखती ओर पूरे खेतो को देखती तो मुझे एक संयुक्त खुशहाल परिवार की तरह दिखती ।
तो कभी एक सम्पन्न समाज की एकता को प्रदर्शित करती हुवे नजर आती ।
और ये सच भी है। ये प्रकृति का खुशहाल समाज है। जो प्रकृति के नियमो के अनुसार चलता है।
जहाँ खेत देखने पर हमें पूरी फसल एक सी नजर आती है।
वही आप कभी करीब जा कर भी देखे आप को भिन्नता भी नजर आयेगी।
कोई गेंहू की बाली ज्यादा दानों से भरी कोई कम कोई अधिक ऊँची तो कोई कम, कोई जल्दी पक कर तैयार तो कोई थोड़ा देर से।
मगर फिर भी सब एक साथ एक दूसरे के साथ खड़ी है। एक ही जमी पर।
कुछ इसी तरह हमारा मानव समाज भी है।
कोई छोटा ,कोई बड़ा, कोई बुद्धिमान कोई अल्प बुद्धि सभी तरह की भिन्नताओं को लिये हम भी एक साथ एक धर्म एक देश को लिए एक पावन मातृ भूमि पर खड़े है।
यूँ कहे कि प्रकृति के समाज फसल और हमारे मानव समाज मे कितनी समानता है।
ये समानता हमे तब ही नजर आयेगी जब हम प्रकृति और अपनो को करीब से देखेंगे जानेंगे।
तो मुझे पूरा विश्वास है कि आज के बाद आप जब भी खेत मे लहलहाती फसल को देखेंगे।
तो उसे एक परिवार समाज की दृष्टि से देख अपने परिवार और समाज को अच्छे से समझ पाओगे।
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