वैधव्य की पीड़ा

वैधव्य की पीड़ा

शीर्षक: वैधव्य की पीड़ा

आज मुझे मेरी प्रिय सखी शीला बाजार में मिल गई थी, हम दोनों का एक ही शहर में विवाह हुआ था|

बिल्कुल मुरझा सी गई थी वह हंसने खील-खिलाने वाली शीला, जैसे उसके ऊपर ग्रहण लग गया था।

हम दोनों घनिष्ठ सखियां थी, अपना सुख दुख एक दूसरे से साझा करती थी|

हर एक बात जो हमारे मन में होती थी एक दूसरे को कहती थी|

शीला के विषय में सोचती हूँ तो मेरा मन उदास हो जाता है |

कि समय भी क्या क्या रंग दिखाता है इंसान को|

एक अच्छी व्यक्तित्व की धनी, और खुश रहने वाली शीला अब उसके जीवन में सदैव के लिए उदासी छा गई है|

और जीवन में कहीं कोई उत्साह नहीं रहा है| हुआ यूं है कि शीला के पति का 4 साल पहले हृदयाघात से निधन हो गया।

शीला ने इस वज्रपात को बहुत ही साहस और धैर्य से सहा और अपनी जिंदगी में आगे बढ़ रही है।

अपने बच्चों के साथ और दुनिया की हर खुशी देने में लगी है जो कि एक पिता की उपस्थिति में उन्हें मिलती।

उसके दोनों बच्चे और बड़े हो रहे हैं ।

उसने अपने आप को व्यस्त रखने के लिए एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली ।

और उसी के साथ वह कुछ ट्यूशन और कोचिंग भी घर में ही लेने लग गई, जिससे कि उसके आमदनी का सहारा हो गया।

खैर समय कहाँ ठहरता है…

वो कहते हैं ना कि समय धीरे-धीरे सभी घावों को भर देता है ।

किंतु शीला के कुछ घाव उसकी अंतरात्मा पर लगी हुई कुछ चोटे ऐसी है जो कि नासूर बन चुकी है।

जब भी शीला से मैं मिलती थी वह अपने मन की सारी बातें मुझसे कहती थी।

एक बार शीला ने मुझे समाज की दोगली बातों के विषय में बताया ।

दो तीन वाकये को उसने मुझे सुनाया जिसे सुनकर मैं स्तब्ध रह गई ऐसा लगा कि जब मैंने सुना तो मेरा यह हाल है ।

तो जब जिस पर कटाक्ष किया गया उसकी क्या हाल होंगे।

उसे मात्र 38 साल की उम्र मे “विधवा” शब्द से रूबरू होना पड़ा क्योंकि अब यही उसका पद था।

जो भी बोले यह तो”विधवा” है।

एक रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना उसने मुझे सुनाई|

वह बता रही थी, कि एक बार वह बाजार गई थी कुछ खरीदने के लिए ।

अब उसके पति के बाद से सारा काम वही देखती थी ।

बाजार से लेकर घर ,बच्चों की पढ़ाई ,स्कूल , सब कुछ !

जब वह बाजार गई तो एक दुकान पर कुछ खरीद रही थी ।

वहाँ पर अनजाने में एक महिला आई और उसे नहीं मालूम था।

कि शीला एक ‘कल्याणी’ है।

वह दुकानदार से आकर बोलती कि भैया

” विधवा के लिए चूड़ियां ” बताइए ।

शीला ने जैसे ही यह शब्द सुना वह पलटी भी नहीं उसे यह भी नहीं देखा कि कौन किसके लिए बोल रहा है ।

किंतु वह मानो एक बर्फ़ की तरह जम गई।

दरअसल वह महिला किसी अन्य कल्याणी के लिए कुछ चूड़ियां लेने आई थी।

किंतु उसके बोलने का जो भाव था कि भैया विधवा के लिए चूड़ियां बताइए क्या यह सही था ?

क्या वह और कोई संबोधन नहीं दे सकती थी ?

हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी ने इस शब्द के स्थान पर “कल्याणी” शब्द का प्रयोग किया है।

जो कि एक सम्मान पूर्वक गरिमा पूर्वक संबोधन है ।

शीला ने जब मुझे यह घटना बताई तब मेरा ‌”कलेजा मुँह को आ गया ”

खैर वह वाक्य वह कड़वे घूंट समझकर पी गई।

भले अनजाने में ही सही उसे किसी ने कटाक्ष नहीं किया किंतु था तो उस जैसी स्त्रियों के लिए ही।

उस दिन वह बहुत रोई।

मैंने उसे बहुत समझाया कि मुझे उस पर गर्व है कि वह अपने जीवन को नई दिशा दे रही है।

और अपने बच्चों के लिए भी बहुत कुछ कर रही हैं।

जैसे-तैसे उसकी मन की पीड़ा को थोड़ा में कम कर पाई।

एक बार उसने एक घटना की बात और की थी मुझे ,

किसी कार्यक्रम में उसका कहीं जाना हुआ, किसी रिश्तेदार के यहां पर।

शीला मंगलसूत्र नहीं पहनती थी। गले में गोल्ड चेन ही पहनती थी।

वहां पर भी किसी ने उस से सीधा ही प्रश्न कर लिया,

कि क्या तुम्हारा “आदमी नहीं है” ?

किंतु शीला ने बड़ी ही निडरता के साथ जवाब दिया कि “हाँ नहीं है” ।

वह महिला फिर बोली कि तुम्हारे गले में मंगलसूत्र भी नहीं है और मांग में सिंदूर भी नहीं है , उसने देखते हुए भी अपने व्यंग के लहजे में शीला पर कटाक्ष किया।

ऐसे कई बार उसका मन और आत्मा आहत हुई है ।

यह घाव और उसकी यह “वैधव्य की पीड़ा” का अंदाजा हम कभी लगा ही नहीं सकते जब वह किसी भी आयोजन में जाती है।

और सुहागन स्त्रियों को सजा सजा देखती है।

शृंगार और मेहंदी के साथ देखती है तो उसका मन बहुत रोता है ।

किंतु अपने चेहरे पर कभी भी वह व्यक्त नहीं होने देती।

क्योंकि उसने नियति के इस सच को स्वीकार कर लिया है कि यह श्रृंगार यह मेहंदी यह लाल रंग शायद मेरे लिए बने ही नहीं है।

आज शीला एक सम्मान पूर्वक एक अच्छा जीवन जी रही है।

मेरे मन में शीला की जगह बहुत बढ़ गई है और उसके लिए सम्मान भी बहुत बढ़ गया है ।

और मैं नमन करती हूँ उसको और उसे जज्बे को, क्योंकि हम लोग जो सामान्य जीवन जीते हैं, उसमें खुशी के कई पल आते हैं।

किंतु शीला प्रतिदिन किसी न किसी कटाक्ष के साथ उसका सामना होता है चाहे अनजाने में ही सही।

अब धीरे-धीरे वह सामान्य जीवन जीने लग गई है।

अब वहां समाज और लोगों के तानो की परवाह नहीं करती है ।

सामाजिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है।

किंतु एक बात मेरे मन में आई।

और उसके उन सवालों को क्षण भर भी सोचने बैठती हूँ तो मन कठोर हो जाता है।

उन लोगों के प्रति जो ऐसी भावना और सोच के साथ रहते हैं।

क्या अपने समाज में * वैधव्य* का कोई स्थान नहीं है?

यह महिलाएँ जो इस पीड़ा के साथ अपना जीवन यापन कर रही है ,

उन्हें और दुखी करना जरूरी है क्या ?‌

कई दिनों तक मेरे मन में उसका वही सवाल जो उस दुकानदार के यहां पर उसे सुनने को मिला कि भैया

“विधवाओं की चूड़ियां” है क्या!

मैं भी आज सभी से पूछती हूं ,

ऐसी कोई चूड़ियां होती है क्या? भगवान ने चूड़ियों में अंतर किया है विधवाओं की और सुहागिनों की चूड़ियां अलग-अलग बनाई है ?

Photo by engin akyurt on Unsplash

और कहानियां पढें : शब्दबोध कथांजलि

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About सारिका जोशी 2 Articles
श्रीमती सारिका अनूप जोशी महेश्वर ( जिला _खरगोन) म. प्र. शिक्षा _स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र), B.ed नार्मदीय लोक , इंदौर समाचार पत्रिका , लघुकथा लोक ,लघुकथा के परिंदे अन्य व्हाट्सएप साहित्य ग्रुप से जुड़ी हूं आदि में निमाड़ी रचना , लघु कथाएं , कहानियां एवं हिंदी कविता ,आदि प्रकाशित होती रहती है।
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