दिव्य महापुरुष – स्वामी राम कृष्ण परमहंस जी

रामकृष्ण परमहंस

भारतीय भूमि सच्चे साधुओं, महापुरुषों व संतो की तपोभूमि रही हैं, जिन्होंने धर्म साधना और अपनी योग साधना से न केवल आत्म सिद्धि प्राप्त की बल्कि धार्मिक नवचेतना की समाज को नई दिशा भी दी। मानवतावादी धर्म गुरुओं के ये सच्चे साधक रहे हैं।

स्वामी राम कृष्ण जी में हमे सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति के दर्शन होते हैं। ये प्रसिद्ध संतो में से एक थे।

श्री रामचंद्र व भगवान बुद्ध को छोड़कर अवतारी पुरुषों का जन्म संकटग्रस्त परिस्थितियों में ही हुआ है। वैसे ही रामकृष्ण जी भी किसी विशेष सुखद वातावरण में अवतरित नहीं हुए।

इनके माता पिता भगवत भक्त थे। किसी कारण वश विकट परिस्तिथि में उन्हें अपना पैतृक गांव छोड़कर कामारपुर में आकर बसना पड़ा । वही स्वामी जी का जन्म हुआ।

कहा जाता है कि, स्वामीजी के जन्म से पहले इनके पिताजी को गयाजी में दिव्य अलौकिक तेज की अनुभूति हुई। उसी समय इनकी माताजी को भी शिव मंदिर से एक दिव्य अलौकिक प्रकाश पुंज दिखाई दिया व वो उनमें प्रवेश कर गया। इनके माता पिता दोनों को ही अदभूत अनुभूति हुई।

१८ फरवरी १८३६ को उनके यहाँ दिव्य बालक का जन्म हुआ। बालक ने सबको मंत्रमुग्ध सा कर दिया। इनका नाम गदाधर रखा गया। ईश्वरी अवतार व संसार के पथ–प्रदर्शक में बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा थी। उनका स्कूली शिक्षा में मन नहीं लगा।

ऐसा मानते है ना कि, अवतारी पुरुष में कितने ही ऐसे गुण होते हैं, जिसका अनुमान करना मुश्किल होता है। गदाधर कि स्मरण शक्ति तीव्र थी, बचपन से साधु सन्यासियों का संग करने से उन्हें पुराणों का ज्ञान प्राप्त हुआ।
वे धार्मिक उद्दीपन व प्रकृति के सुन्दर दृश्यों से समाधिस्थ हो जाते थे।

एक बार इन्हें गांव के बाहर विचित्र प्रकार कि ज्योति का दर्शन हुआ और वे बाह्य ज्ञान-शुन्य हो गए। उन्हें उस समय भाव समाधी हो गयी थी। माया-ग्रस्थ संसारियों ने समझा, गर्मी के कारण मूर्छित हो गए।

पिता कि मृत्यु इनकी कम उम्र में ही होने से इन्हें भौतिक संसार से विरक्ति हो गयी। उसके बाद कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में काली मंदिर में इन्हें पुजारी के पद पर नियुक्त किया गया। उनकी पूजा में अलौकिक मग्नता होती थी, उस भाव का वर्णन नहीं कर सकते। वे ध्यानावस्थित हो पूजा करते, तन-मन कि सूध नहीं रहती, ह्रदय उल्लास से भरा होता, वे स्वयं में माँ को ही देखते थे, और समाधिस्थ हो जाते।

एक दिन व्यथित होकर मंदिर में तलवार से अपने शरीर का अंत करना चाहा, कि उन्हें जगन्माता का अपूर्व दर्शन हुआ और बेसुध हो गए। उसके बाद उनके अन्तः करण में एक प्रकार के अनुभूत आनंद का प्रवाह बहने लगा। माँ काली उनके लिए हकीकत थी।

ऐसी अवस्था को घर के लोग मानसिक विकार समझे, सोचा शादी के बाद ठीक हो जायेंगे इसलिए पास ही के गांव जयरामवटी कि सुशील कन्या शारदा देवी से इनका विवाह कर दिया। शारदा देवी के दक्षिणेश्वर आने पर भी वे उनमें माँ काली को ही देखते थे।

शारदा देवी ने भी एक आदर्श अर्धांगिनी का धर्म पूर्ण रूप से निभाया। उन्होंने पति को ईश्वर माना। स्वामीजी भाव मव होकर शारदा देवी का जबदम्बा ज्ञान से पूजन करते, उस समय देवी व पुजारी एक रूप हो गए, अनेकता में एकता झलकने लगी।

एक वेदांती ‘तोतापुरी जी’ ने स्वामीजी को दीक्षा दी । 3 दिन में ही उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के साथ एकल कि अनुभूति कर ली। उन्होंने सभी धर्मो को एक माना, ये सभी धर्म ईश्वर पथ पर पहुँचाने के सच्चे मार्ग है। तभी से यह ‘स्वामी परमहंस’ कहलाये। उन्होंने कामिनी कांचन का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया, वे मानते थे कि ईश्वर प्राप्ति में यह बाधक है।

उन्होंने उनके मुख्य शिष्य नरेन (विवेकानंद जी) को पहली बार में ही ऋषि अवतार के रूप में पहचान लिया था, वे जानते थे कि उनका कार्य भविष्य में नरेन के द्वारा ही संचालित होगा। विवेकानंद जी ने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की, जो वैलूर मठ द्वारा संचालित होता हैं।

भौतिक तकलीफ होने पर भी उन्होंने माँ काली की भक्ति से ध्यान नहीं हटाया। उन्होंने अपने आप को माँ काली को समर्पित कर दिया। उनका कहना था कि ह्रदय अहंकार से आच्छादित हो तो ईश्वर को नहीं पा सकते, अहंकार होने से मुक्ति संभव नहीं, अहंकार ही माया है।
अगस्त 1886 में गले के रोग से पीड़ित हो उन्होंने महासमाधि ले ली। स्वामीजी के उपदेश संसार भर में ‘राम कृष्ण मिशन’ के द्वारा कोने-कोने में गूंज रहे हैं।

भारतवर्ष महिमाशाली व सामर्थ्यवान होकर विश्व को नेतृत्व करे, तो हमें स्वामीजी के पदचिन्हों का अनुसरण करना श्रेयस्कर होगा।

फोटो – ‘रामकृष्ण मिशन’, वैलूर मठ, https://belurmath.org/sri-ramakrishna/

शेयर करें
About चंचला प्रकाश शुक्ला 6 Articles
चंचला प्रकाश शुक्ला ऐम. ए. हिंदी साहित्य , गृहिणी
0 0 votes
लेख की रेटिंग
Subscribe
Notify of
guest

0 टिप्पणियां
Inline Feedbacks
View all comments